खिचड़ीपुर गांव : पुश्तैनी रोजगार छिन जाने से बेरोजगार हुए लोग, यहां भी किरायेदार ही सहारा
(अमन न्यूज़ )
खिचड़ीपुर गांव को अंग्रेजों ने पशुपालन और दुग्ध उत्पादन करने के लिए बसाया था। लंबे समय तक गांव के लोगों के जीवन यापन का मुख्य जरिया पशुपालन था। दिल्ली में 2010 में कामनवेल्थ खेलों का आयोजन हुआ, तो नगर निगम ने घरों में पशुपालन करने पर प्रतिबंध लगा दिया। गांव का पुश्तैनी रोजगार छिन जाने से अधिकतर लोग बेरोजगार हो गए।
खिचड़ीपुर गांव के 84 साल के बुजुर्ग तुरमल नागर ने बताया कि हरियाणा के बल्लभगढ़ से सन् 1947 में गूजरों का चार परिवार गाय पालने के लिए यहां आकर बस गया था। देश आजाद होने के बाद गूजरों के और भी परिवार यहां आए। मौजूदा समय खिचड़ीपुर गांव में गूजरों के डेढ़ा और नागर गोत्र के करीब 400 घर हैं। तुरमल नागर ने बताया कि पहले खिचड़ीपुर मुसलमानों का गांव था, लेकिन गूजरों का खेड़ा बसने से पहले वो पटपड़गंज गांव में बस गए थे। अभी इस गांव में गूजरों के अलावा अनुसूचित जातियों के परिवार और गिने-चुने ब्राह्मणों के घर भी हैं। गांव की आबादी करी 6 हजार है।
खिचड़ीपुर गांव 3600 बीघा खेती की जमीन 1975 में दिल्ली सरकार ने अधिग्रहीत कर ली थी। खिचड़ीपुर गांव के खेत मंडावली, कोंडली, घड़ौली, गाजीपुर और दल्लूपुरा की सीमा तक थे। गांव के निवासी श्रीपाल ने बताया कि सरकार ने 60 पैसा प्रति गज के हिसाब से उनकी जमीनों का मुआबजा तय किया। आस पास के दूसरे गांवों की अपेक्षा इनकी जमीनों की कीमत कम लगाई। चार पीढ़ियां बीत गईं लेकिन कितनों को अभी तक मुआब्जे का पूरा पैसा नहीं मिला। लोग कड़कड़डूमा कोर्ट में आज भी मुकदमा लड़ रहे हैं।
खिचड़ीपुर के लोगों का कहा कि सरकार ने उनके खेतों को ले लिया। खेती-किसानी बिल्कुल बंद हो गई। बाद में पशुपालन पर प्रतिबंध लग गया। गांव की सौ फीसदी आबादी बेरोजगार हो गई। अब किराएदारों के भरोसे गांव के लोग गुजर बसर कर रहे हैं। लॉकडाउन में किराएदार चले गए तो कई परिवारों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी।
खिचड़ीपुर गांव भले ही शहर का हिस्सा है। लेकिन इस गांव के लोगों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता से जुड़े निशान आज भी बचा कर रखा है। गांव के एक छोर पर आज भी कुल देवी का मंदिर और खेड़े की पहचान बरगद का पेड़ संरक्षित है। खिचड़ीपुर खेडे़ की कुलदेवी गुरुग्राम के प्राचीन शीतला माता मंदिर का अवतार हैं। गांव के मध्य रमेश पंडित के पुस्तैनी घर के घर के सामने पीपल का पेड़ सैकड़ो साल पुराना है।
गांव की जमीन चली गई अब सरकार पशुओं को भी नहीं पालने दे रही, लेकिन गांव की डेरी तो देनी चाहिए, लोग बेरोजगार घूम रहे हैं।
हमारी 150 बीघा जमीन चली गई, एक मकान के अलावा और कोई पूंजी नहीं है, बिना पुलिस और निगम की परमीशन के अपनी जमीन पर एक ईंट भी नहीं रख सकते।
कई साल से गाय-भैंस पालते थे, गांव के लोग चाहते हैं कि फिर से पशुपालन करें, गांव की जमीन पर बनी डेयरी गाजीपुर में चली गई, उसे भी बाहर के लोग चला रहे हैं
गांव के लोगों ने डेयरी के लिए अप्लाई किया तो सरकार घोंघा में जगह दे रही थी, इतनी दूर जाकर आखिर गांव के लोग डेयरी कैसे खोल सकते हैं।
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